Thursday, October 1, 2009

मैं बस बेवजह समय काटना चाहता हूँ....

बेवजह समय काटना,
कितना आसान और कितना मुश्किल,
सुबह से ऐसे बैठा हूँ जैसे काम का अंबार है मुझ पर,
सोचता हूँ ऐसे, जैसे सो ख़्याल हैं दिमाग़ में,
किसको दिखा रहा हूँ, कि व्यस्त हूँ इस अव्यवस्था में,
जीवेन की दौड़ में और रास्ते की खोज में,
परछाई का रंग लाल हो रहा है जैसे,
सूरज कहीं कहीं से फिर खो रहा है जैसे,
पकड़ सकता हूँ अपनी परछाई के रंग को मैं,
ऐसे ही मान जाओगे या कर के दिखाउन मैं,
मेरा रंग जो भी हो परछाई तो रंगीली हो,
अपने मॅन से जो सपने देखूं हू थोड़े तो नशीले हों,
वैसे तो आप ही आप को खिलाते हैं रंगो का ये खाना,
ना जाने काला रंग किसको है निभाना,
रंगहीन सी जिंदगी और रंगीली ये परछाई,
सालों से तस्वीरों में दिखती ये तन्हाई,
निकल कर बाहर आज फिर लुट गयी है,
अव्यवस्थता की गहरी खाई मैं कहीं डूब गयी है,
मेरी तन्हाई दे दो मुझे की मैं नही चाहता रंगो में नहाना,
मैं बस बेवजह समय काटना चाहता हूँ......

2 comments:

rashmi said...

Bahut achhi hai!!!!

Jaya said...

मेरी तन्हाई दे दो मुझे की मैं नही चाहता रंगो में नहाना,....beautifully said...Good to see that you write too!