पलटकर आज भी देखता हूँ उन यादों को,
फूलों मैं ओस की बूंदों से छुपे थे हम,
रेत पर कुछ नक्शे हमने भी बहुत बनाये,
पिघलती हुई बर्फ मैं हम भी बहुत नहाये,
चलते चलते हम थम गए थे जैसे,
मेरी आँखों के वो सपने जम गए थे कुछ ऐसे,
की जाने क्यों ये चाँद आज भी डरा देता है,
बिस्तर से सोते सोते आज भी जगा देता है...
1 comment:
Bahut achhi hai ye bhi
Post a Comment